Friday 12 September 2014

प्रतीक्षा

जाते हुए
यूं देकर गए थे तुम
सुर्ख गुलाब का वो गमला
जैसे कर रहे हो वादा
फिर लौट कर आने का
नन्हे नाज़ुक पौधे पीली गुलाबी लिली के
जिन्हे खिलना था अगले मौसम
कुछ अधखिली सी रातरानी
जिसका महकना था बेहद ज़रूरी
कुछ इस तरह सौपा था मुझे
तुलसी का बिरवा
जैसे विष्णु ने दिया हो
वृन्दा को कोई वचन
वक्त दबे पांव गुजरा है यहां से
गमलों में आया है मौसम
चटकीले सुर्ख गुलाबों वाला
नाज़ुक लिली को सौप दिया था
धूप के एक चंचल टुकड़े को
दुगुना हुआ है इस साल
वो चमकीला पीला गुलाबी टुकड़ा
रात भर जागती है रातरानी की खुश्बू
उम्मीद की बेनींद आँखों मे
खूब धूमधाम से रचाया था
हरिप्रिया का ब्याह इस एकादशी

मुझे अब भी वादों पर एतबार है
और एक समूचा बागीचा
प्रतीक्षारत है..

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