Sunday 10 March 2013

खुद से बातें


5:41pm
"गुजिश्ता वक़्त के दामन में कुछ दर्द ऐसे भी होते हैं कि जिनसे निजात पाने की हर कोशिश..दर्द की खाई मे गहरे, और गहरे उतरते जाने की कैफियत से रूबरू होना है... भरोसे के टूटने की खामोश आवाज ताज़िन्दगी तीखे शोर की तरह दिमाग़ में गूंजती रहती है.. अपनों से छले जाने का दंश सीने में फांस की तरह दरकता रहता है.. और उस पर मुस्कुराने की सजा.. इसी को तो सब समझदार होना कहते हैं.. पर अगर कोई नासमझ ही निकले तो ?? ऐसे लोगों का क्या?? ज़िन्दगी के दामन में इन नामुरादों के लिए भी कुछ तो होगा?? होना चाहिए ना??"